Wednesday, November 23, 2011

कर्मफल विवरण


 कर्मो का फल कब , कैसा , कितना मिलता है , यह जिज्ञासा सभी धार्मिक  व्यक्तियों
के मन में होती है  । कर्मफल देने का कार्य मुख्य रूप से ईश्वर द्वारा संचालित
व नियंत्रित है , वही इसके पूरे विधान को  जानता है  । मनुष्य इस विधान को कम
अंशों में व मोटे तौर पर ही जान पाया है , उसका सामर्थ्य ही इतना है । ऋषियों
ने अपने ग्रंथो में कर्मफल की कुछ मुख्य – मुख्य महत्वपूर्ण बातों का वर्णन
किया है , उन्हे इस लेख में व  संबंधित चित्र में प्रस्तुत करने का प्रयास किया
गया है ।
कर्मफल सदा कर्म के अनुसार मिलते है ।  फल की दृष्टि से कर्म दो प्रकार के
होते है  -
१. सकाम कर्म
२. निष्काम कर्म
सकाम कर्म उन कर्मो को कहते है , जो लौकिक फल ( धन , पुत्र , यश आदि ) को
प्राप्त करने की इच्छा से किए जाते है । तथा निष्काम कर्म वे होते है , जो
लौकिक फलों को प्राप्त करने के उद्देश्य से न किए जाए बल्कि ईश्वर / मोक्ष
प्राप्ति की इच्छा से किए जाएँ ।
  सकाम कर्म तीन प्रकार के होते है  -  अच्छे  , बुरे  व  मिश्रित ।
अच्छे कर्म – जैसे सेवा ,दान , परोपकार करना आदि  ।  बुरे कर्म – जैसे झूठ
बोलना , चोरी करना आदि । मिश्रित कर्म – जैसे खेती करना आदि , इसमें पाप व
पुण्य (कुछ अच्छा व कुछ बुरा ) दोनों मिले – जुले रहते है ।
  निष्काम कर्म सदा अच्छे ही होते है , बुरे कभी नहीं होते । सकाम कर्मो
का फल अच्छा या बुरा होता है , जिसे इस जीवित में या मरने के बाद मनुष्य पशु ,
पक्षी , आदि शरीरों में अगले जीवन में जीवन अवस्था में ही भोगा जाता है ।
निष्काम कर्मों का फल ईश्वरीय आनन्द की प्राप्ति के रूप में होता है , जिसे
जीवित रहते हुए समाधि अवस्था में व मृत्यु के बाद बिना जन्म लिये मोक्ष अवस्था
में भोगा जाता है ।
  जो कर्म इसी जन्म में फल देने वाले होते है , उन्हे
"द्रष्टजन्मवेदनीय" कहते है और जो कर्म अगले किसी जन्म में फल देने वाले होते
हैं , उन्हे "अद्रष्टजन्मवेदनीय" कहते है इन सकाम कर्मो से मिलने वाले फल तीन
प्रकार के
होते है -  १. जाति   २.  आयु   ३.  भोग  । समस्त कर्मो का समावेश इन तीनों
विभागों में हो जाता है ।   जाति अर्थात मनुष्य , पशु , पक्षी , कीट , पतंग ,
वृक्ष , वनस्पति आदि विभिन्न  योनियाँ , आयु अर्थात जन्म से लेकर मृत्यु तक का
बीच का समय , भोग अर्थात विभिन्न प्रकार के भोजन , वस्त्र , मकान , आदि साधनों
की प्राप्ति । जाति , आयु व भोग इन तीनों से जो  ' सुख – दुख ' की प्राप्ति
होती है , कर्मो का वास्तविक फल ही तो वही है ।  किन्तु सुख – दुख रूपी फल का
साधन होने के कारण  ' जाति , आयु , भोग ' को फल नाम दे दिया गया है ।
  द्रष्टजन्मवेदनीय कर्म  किसी एक फल =आयु व भोग को दे सकते है । जैसे
उचित आहार – विहार , व्यायाम , ब्रह्मचर्य , निद्रा , आदि के सेवन से शरीर की
रोगों से रक्षा की जाति है तथा बल-वीर्य , पुष्टि , भोग सामर्थ्य व आयु को
बढ़ाया जा सकता है , जबकि अनुचित आहार , विहार आदि से बल , आयु आदि घट भी जाते
है ।
  द्रष्टजन्मवेदनीय कर्म 'जाति रूप फल ' को देने वाले नहीं होते हैं
क्योंकि जाति (= योनि ) तो इस जन्म में मिल चुकी है , उसे जीते जी बदला नहीं जा
सकता , जैसे मनुष्य शरीर की जगह पशु शरीर बदल देना ।  हाँ मरने
के बाद तो शरीर बदल सकता है , पर मरने के बाद नई  योनि को देने वाला कर्म
"अद्रष्टजन्मवेदनीय" कहा जाएगा न की द्रष्टजन्मवेदनीय ।
  अद्रष्टजन्मवेदनीय कर्म दो प्रकार के होते है -  १.  ' नियत विपाक '
२. 'अनियत विपाक '  ।   कर्मो का ऐसा समूह  जिनका फल निश्चित हो चुका हो और जो
अगले जन्म में फल देने वाला हो उसे  ' नियत विपाक '
कहते है ।  कर्मो का ऐसा समूह जिसका फल किस रूप में व कब मिलेगा , यह निश्चित न
हुआ हो उसे  ' अनियत विपाक ' कहते है ।
  कर्म फल को शास्त्र में ' कर्माशय ' नाम से कहा गया है ।  ' नियत विपाक
कर्माशय ' के सभी कर्म परस्पर मिलकर ( संमिश्रित रूप में ) अगले जन्म में जाति
, आयु , भोग प्रदान करते है । इन तीनों का संक्षिप्त विवरण निम्न
प्रकार से जानने योग्य है –
१. जाति -  इस जन्म में किए गए कर्मों का सबसे बड़ा महत्वपूर्ण फल अगले
जन्म में जाति – शरीर रूप में मिलता है । मनुष्य , पशु , पक्षी , कीट , पतंग
स्थावर – वृक्ष के शरीरों को जाति के अंतर्गत ग्रहण किया जाता है । यह जाति भी
अच्छे व निम्न स्तर की होती है  यथा  मनुष्यों में  पूर्णांग , सुंदर , कुरूप,
बुद्धिमान , मूर्ख  आदि , पशुओं में गाय , घोडा , गधा सूअर आदि ।
२. आयु – नियत विपाक कर्माशय का दूसरा फल आयु अर्थात जीवनकाल के रूप में
मिलता है ,  जैसी जाति (शरीर = योनि ) होती है , उसी के अनुसार आयु  भी होती है
। यथा मनुष्य की आयु सामान्यतया १०० वर्ष ; गाय , घोडा आदि पशुओं की २५ वर्ष ;
तोता , चिड़िया आदि पक्षियों की २- ४ वर्ष ;  मक्खी , मच्छर , भौरा , तितली आदि
कीट पतंगो की २–४-६ मास की होती है । मनुष्य अपनी आयु को स्वतंत्रता से एक सीमा
तक  घटा – बढ़ा भी सकता है ।
३. भोग – 'नियत विपाक कर्माशय ' का तीसरा फल भोग (=सुख –दुख को प्राप्त
कराने वाले साधन ) के रूप में मिलता है । जैसी जाति (शरीर=योनि ) होती है उसी
जाति की अनुसार भोग होते है । जैसे मनुष्य अपने शरीर , बुद्धि , मन , इन्द्रिय
आदि साधनों से मकान , कार , रेल , हवाई जहाज , मिठाई , पंखा , कूलर आदि साधनों
को बनाकर , उनके प्रयोग से विशेष सुख को भोगता है । किन्तु गाय , भैस , घोडा ,
कुत्ता , आदि पशु केवल घास , चारा , रोटी आदि ही खा सकते है , कार – कोठी नहीं
बना सकते है । शेर , चीता , भेड़िया आदि हिंसक प्राणी केवल माँस ही खा सकते है ,
वे मिठाई , गाड़ी , मकान , वस्त्र आदि की सुविधाएँ उत्पन्न नहीं कर सकते है ।
जैसा की पूर्व कहा गया की  ' नियत विपाक कर्माशय ' से मिली आयु व भोग पर
'द्रष्टजन्मवेदनीय कर्माशय' का प्रभाव पड़ता है , जिससे आयु व भोग घट-बढ़ सकते
हैं , पर ये एक सीमा तक (उस जाति के अनुरूप सीमा में ) ही बढ़ सकते है ।
   'अद्रष्टजन्मवेदनीय कर्माशय' के अंतर्गत  ' अनियतविपाक' कर्मो
का फल जाति , आयु भोग के  रूप में ही मिलता है , परंतु यह फल कब व किस विधि से
मिलता है , इसके लिए शास्त्र में तीन स्थितियां ( गतियां ) बताई गई  है ।
१. कर्मो का नष्ट हो जाना ,  २.  साथ मिलकर फल देना   ३. दबे रहेना ।
१. प्रथम गति -  कर्मों का नष्ट हो जाना – वास्तव में बिना फल को दिए कर्म
कभी भी नष्ट नहीं होते , किन्तु यहाँ प्रकरण में नष्ट होने का तात्पर्य बहुत
लंबे काल तक लुप्त हो जाना है । किसी भी जीव के कर्म सर्वांश में कदापि समाप्त
नहीं होते , जीव के समान वे भी अनादि – अनंत है । कुछ न कुछ मात्र संख्या में
तो रहेते ही है । चाहे जीब मुक्ति में भी क्यों न चला जावे ।    अविद्या ( राग
– द्वेष ) के संस्कारों को नष्ट करके जीव मुक्ति को प्राप्त कर लेता है , जितने
कर्मो का फल उसने अब अक भोग लिया है , उनसे अतिरिक्त जो भी कर्म बच जाते है ,
वे मुक्ति के काल तक ईश्वर से ज्ञान में बने रहेते है । इनहि बचे कर्मो के आधार
पर मुक्ति काल पश्चात जीव को पुनः मनुष्य शरीर मिलता है । तब तक ये कर्म फल
नहीं देते , यही नष्ट होने का अभिप्राय है ।
२. दूसरी गति – साथ मिलकर फल देना – अनेक स्थितियाँ में ईश्वर अच्छे व
बुरे कर्मों का फल साथ – साथ भी देता है । अर्थात अच्छे कर्मो का फल अच्छी जाति
, आयु और भोग मिलता है , किन्तु साथ में कुछ अशुभ कर्मों का फल दुख भी भुगा
देता है । इसी प्रकार अशुभ का प्रधान रूप से निम्न स्तर की जाति , आयु , भोग
रूप फल देता है , किन्तु साथ में कुछ शुभ कर्मों का फल सुख भी मिल जाता है ।
उदाहरण के लिए शुभ कर्मों का फल मनुष्य जन्म तो मिला , किन्तु अन्य अशुभ कर्मों
के कारण उस शरीर को अंधा , लूला , या कोढ़ी बना दिया । दूसरे पक्ष में प्रधानता
से अशुभ कर्मों का फल गाय , कुत्ता , आदि पशु योनि रूप में मिला , किन्तु कुछ
शुभ कर्मों के कारण अच्छे देश में अच्छे घर में मिला , परिणाम स्वरूप सेवा ,
भोजन आदि अच्छे स्तर के मिले ।
३. तीसरी गति – कर्मों का दबे रहेना – मनुष्य अनेक प्रकार के कर्म करता है
, उन सारे कर्मो का फल किसी एक ही योनि – शरीर में मिल जाए , यह संभव नहीं है ।
अतः जिन कर्मों की प्रधानता होती है , उनके अनुसार अगला जन्म मिलता है । जिन
कर्मों की अप्रधानता रहती है , वे कर्म पूर्व संचित कर्मों मे जाकर जुड़ जाते है
और तब तक फल नहीं देते , जब तक की उनही के सदृश , किसी मनुष्य शरीर में मुख्य
कर्म न कर लिए जाए । इस तीसरी स्थिति को कर्मों का दबे रहेना नाम से कहा जाता
है ।
    उदाहरण – किसी मनुष्य ने अपने जीवन में मनुष्य जाति ,
आयु , भोग दिलाने वाले कर्मों के साथ साथ कुछ कर्म सूअर की जाति , आयु , भोग
दिलाने वाले भी कर दिए , प्रधानता – अधिकता के कारण अगले जन्म में मनुष्य शरीर
मिलेगा और सूअर की योनि देने वाले कर्म तब अक दबे रहेंगे , जब तक की सूअर की
योनि देने वाले कर्मों की प्रधानता न हो जाए ।
    उपयुक्त विवरण का सार यह निकलता की इस जन्म में दुखों
से बचने तथा सुख को प्राप्त करने के लिए तथा मोक्ष की प्राप्ति के लिए हमें सदा
शुभ कर्मों को ही करते रहना चाहिए और उनको भी निष्काम भावना से करना चाहिए ।
आभार :- आचार्य ज्ञानेश्वरार्य , दार्शनिक निबंध.