Wednesday, March 6, 2019

शूरता की मिसाल – पंडित लेखराम आर्य मुसाफिर (डॉ विवेक आर्य)

शूरता की मिसाल – पंडित लेखराम आर्य मुसाफिर
(6 मार्च को पंडित लेखराम जी के बलिदान दिवस के अवसर पर प्रकाशित)
डॉ विवेक आर्य
Pandit Lekhram
पंडित लेखराम इतिहास की उन महान हस्तियों में शामिल हैं जिन्होंने धर्म की बलिवेदी पर प्राण न्योछावर कर दिए. जीवन के अंतिम क्षण तक आप वैदिक धर्म की रक्षा में लगे रहे.. आपके पूर्वज महाराजा रंजित सिंह की फौज में थे इसलिए वीरता आपको विरासत में मिली थी. बचपन से ही आप स्वाभिमानी और दृढ विचारो के थे. एक बार आपको पाठशाला में प्यास लगी. मौलवी से घर जाकर पानी पीने की इजाजत मांगी. मौलवी ने जूठे मटके से पानी पीने को कहाँ. आपने न दोबारा मौलवी से घर जाने की इजाजत मांगी और न ही जूठा पानी पिया. सारा दिन प्यासा ही बिता दिया. पढने का आपको बहुत शोक था. मुंशी कन्हयालाल अलाख्धारी की पुस्तकों से आपको स्वामी दयानंद जी का पता चला. अब लेखराम जी ने ऋषि दयानंद के सभी ग्रंथो का स्वाध्याय आरंभ कर दिया. पेशावर से चलकर अजमेर स्वामी दयानंद के दर्शनों के लिए पंडित जी पहुँच गए. जयपुर में एक बंगाली सज्जन ने पंडित जी से एक प्रश्न किया था की आकाश भी व्यापक हैं और ब्रह्मा भी , दो व्यापक किस प्रकार एक साथ रह सकते हैं ? पंडित जी से उसका उत्तर नहीं बन पाया था. पंडित जी ने स्वामी दयानंद से वही प्रश्न पुछा. स्वामी जी ने एक पत्थर उठाकर कहा की इसमें अग्नि व्यापक हैं या नहीं? मैंने कहाँ की व्यापक हैं, फिर कहाँ की क्या मिटटी व्यापक हैं? मैंने कहाँ की व्यापक हैं, फिर कहाँ की क्या जल व्यापक हैं? मैंने कहाँ की व्यापक हैं. फिर कहाँ की क्या आकाश और वायु ? मैंने कहाँ की व्यापक हैं, फिर कहाँ की क्या परमात्मा व्यापक हैं? मैंने कहाँ की व्यापक हैं.फिर स्वामी जी बोले कहाँ की देखो. कितनी चीजें हैं परन्तु सभी इसमें व्यापक हैं. वास्तव में बात यहीं हैं की जो जिससे सूक्षम होती हैं वह उसमे व्यापक हो जाती हैं. ब्रह्मा चूँकि सबसे अति सूक्षम हैं इसलिए वह सर्वव्यापक हैं. यह उत्तर सुन कर पंडित जी की जिज्ञासा शांत हो गयी. आगे पंडित जी ने पुछा जीव ब्रह्मा की भिन्नता में कोई वेद प्रमाण बताएँ. स्वामी जी ने कहाँ यजुर्वेद का ४० वां अध्याय सारा जीव ब्रह्मा का भेद बतलाता हैं. इस प्रकार अपनी शंकाओ का समाधान कर पंडित जी वापस आकार वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार में लग गए.
शुद्धि के रण में
कोट छुट्टा डेरा गाजी खान (अब पाकिस्तान ) में कुछ हिन्दू युवक मुस्लमान बनने जा रहे थे. पंडित जी के व्याखान सुनने पर ऐसा रंग चड़ा की आर्य बन गए और इस्लाम को तिलांजलि दे दी.इनके नाम थे महाशय चोखानंद, श्री छबीलदास व महाशय खूबचंद जी ,जब तीनो आर्य बन गए तो हिन्दुओं ने उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया.कुछ समय के बाद महाशय छबीलदास की माता का देहांत हो गया. उनकी अर्थी को उठाने वाले केवल ये तीन ही थे. महाशय खूबचंद की माता उन्हें वापस ले गयी. आप कमरे का ताला तोड़ कर वापिस संस्कार में आ मिले. तीनो युवको ने वैदिक संस्कार से दाह कर्म किया. पौराणिको ने एक चल चली यह प्रसिद्ध कर दिया की आर्यों ने माता के शव को भुन कर खा लिया हैं. यह तीनो युवक मुसलमान बन जाये तो हिन्दुओं को कोई फरक नहीं पड़ता था परन्तु पंडित लेखराम की कृपा से वैदिक धर्मी बन गए तो दुश्मन बन गए. इस प्रकार की मानसिकता के कारण तो हिन्दू आज भी गुलामी की मानसिकता में जी रहे हैं.
जम्मू के श्री ठाकुरदास मुस्लमान होने जा रहे थे. पंडित जी उनसे जम्मू जाकर मिले और उन्हें मुसलमान होने से बचा लिया.
१८९१ में हैदराबाद सिंध के श्रीमंत सूर्यमल की संतान ने इस्लाम मत स्वीकार करने का मन बना लिया. पंडित पूर्णानंद जी को लेकर आप हैदराबाद पहुंचे. उस धनी परिवार के लड़के पंडित जी से मिलने के लिए तैयार नहीं थे. पर आप कहाँ मानने वाले थे. चार बार सेठ जी के पुत्र मेवाराम जी से मिलकर यह आग्रह किया की मौल्वियो से उनका शास्त्राथ करवा दे. मौलवी सय्यद मुहम्मद अली शाह को तो प्रथम बार में ही निरुत्तर कर दिया.उसके बाद चार और मौल्वियो से पत्रों से विचार किया. आपने उनके सम्मूख मुस्लमान मौल्वियो को हराकर उनकी धर्म रक्षा की.
वही सिंध में पंडित जी को पता चला की कुछ युवक ईसाई बनने वाले हैं. आप वहा पहुच गए और अपने भाषण से वैदिक धर्म के विषय में प्रकाश डाला. एक पुस्तक आदम और इव पर लिख कर बांटी जिससे कई युवक ईसाई होने से बच गए.
गंगोह जिला सहारनपुर की आर्यसमाज की स्थापना पंडित जी से दीक्षा लेकर कुछ आर्यों ने १८८५ में करी थी.कुछ वर्ष पहले तीन अग्रवाल भाई पतित होकर मुस्लमान बन गए थे. आर्य समाज ने १८९४ में उन्हें शुद्ध करके वापिस वैदिक धर्मी बना दिया. आर्य समाज के विरुद्ध गंगोह में तूफान ही आ गया. श्री रेह्तूलाल जी भी आर्यसमाज के सदस्य थे. उनके पिता ने उनके शुद्धि में शामिल होने से मन किया पर वे नहीं माने. पिता ने बिरादरी का साथ दिया. उनकी पुत्र से बातचीत बंद हो गयी. पर रेह्तुलाल जी कहाँ मानने वाले थे उनका कहना था गृह त्याग कर सकता हु पर आर्यसमाज नहीं छोड़ सकता हूँ. इस प्रकार पंडित लेखराम के तप का प्रभाव था की उनके शिष्यों में भी वैदिक सिद्धांत की रक्षा हेतु भावना कूट-कूट कर भरी थी.
घासीपुर जिला मुज्जफरनगर में कुछ चौधरी मुस्लमान बनने जा रहे थे. पंडित जी वह एक तय की गयी तिथि को पहुँच गए. उनकी दाड़ी बढ़ी हुई थी और साथ में मुछे भी थी. एक मौलाना ने उन्हें मुस्लमान समझा और पूछा क्यों जी यह दाढ़ी तो ठीक हैं पर इन मुछो का क्या राज हैं. पंडित जी बोले दाढ़ी तो बकरे की होती हैं मुछे तो शेर की होती हैं. मौलाना समाज गया की यह व्यक्ति मुस्लमान नहीं हैं. तब पंडित जी ने अपना परिचय देकर शास्त्रार्थ के लिए ललकारा. सभी मौलानाओ को परास्त करने के बाद पंडित जी ने वैदिक धर्म पर भाषण देकर सभी चौधरियो को मुस्लमान बन्ने से बचा लिया.
१८९६ की एक घटना पंडित लेखराम के जीवन से हमें सर्वदा प्रेरणा देने वाली बनी रहेगी. पंडित जी प्रचार से वापिस आये तो उन्हें पता चला की उनका पुत्र बीमार हैं. तभी उन्हें पता चला की मुस्तफाबाद में पांच हिन्दू मुस्लमान होने वाले हैं. आप घर जाकर दो घंटे में वापिस आ गए और मुस्तफाबाद के लिए निकल गए. अपने कहाँ की मुझे अपने एक पुत्र से जाति के पांच पुत्र अधिक प्यारे हैं. पीछे से आपका सवा साल का इकलोता पुत्र चल बसा. पंडित जी के पास शोक करने का समय कहाँ था. आप वापिस आकार वेद प्रचार के लिए वजीराबाद चले गए.
पंडित जी की तर्क शक्ति गज़ब थी. आपसे एक बार किसी ने प्रश्न किया की हिन्दू इतनी बड़ी संख्या में मुस्लमान कैसे हो गए. अपने सात कारण बताये. १. मुस्लमान आक्रमण में बलातपूर्वक मुसलमान बनाया गया २. मुसलमानी राज में जर, जोरू व जमीन देकर कई प्रतिष्ठित हिन्दुओ को मुस्लमान बनाया गया ३. इस्लामी कल में उर्दू, फारसी की शिक्षा एवं संस्कृत की दुर्गति के कारण बने ४. हिन्दुओं में पुनर्विवाह न होने के कारण व सती प्रथा पर रोक लगने के बाद हिन्दू औरतो ने मुस्लमान के घर की शोभा बढाई तथा अगर किसी हिन्दू युवक का मुस्लमान स्त्री से सम्बन्ध हुआ तो उसे जाति से निकल कर मुस्लमान बना दिया गया. ५. मूर्तिपूजा की कुरीति के कारण कई हिन्दू विधर्मी बने ६. मुसलमानी वेशयायो ने कई हिन्दुओं को फंसा कर मुस्लमान बना दिया ७. वैदिक धर्म का प्रचार न होने के कारण मुस्लमान बने.
अगर गहराई से सोचा जाये तो पंडित जी ने हिन्दुओं को जाति रक्षा के लिए उपाय बता दिए हैं, अगर अब भी नहीं सुधरे तो हिन्दू कब सुधरेगे.
पंडित जी और गुलाम मिर्जा अहमद
पंडित जी के काल में कादियान , जिला गुरुदासपुर पंजाब में इस्लाम के एक नए मत की वृद्धि हुई जिसकी स्थापना मिर्जा गुलाम अहमद ने करी थी. इस्लाम के मानने वाले मुहम्मद साहिब को आखिरी पैगम्बर मानते हैं, मिर्जा ने अपने आपको कभी कृष्ण, कभी नानक, कभी ईसा मसीह कभी इस्लाम का आखिरी पैगम्बर घोषित कर दिया तथा अपने नवीन मत को चलने के लिए नई नई भविष्यवानिया और इल्हामो का ढोल पीटने लगा.
एक उदहारण मिर्जा द्वारा लिखित पुस्तक “वही हमारा कृष्ण ” से लेते हैं इस पुस्तक में लिखा हैं – उसने (ईश्वर ने) हिन्दुओं की उन्नति और सुधर के लिए निश्कलंकी अवतार को भेज दिया हैं जो ठीक उस युग में आया हैं जिस युग की कृष्ण जी ने पाहिले से सुचना दे रखी हैं. उस निष्कलंक अवतार का नाम मिर्जा गुलाम अहमद हैं जो कादियान जिला गुरुदासपुर में प्रकट हुए हैं. खुदा ने उनके हाथ पर सहस्त्रो निशान दिखये हैं. जो लोग उन पर इमान लेट हैं उनको खुदा ताला बड़ा नूर बख्शता हैं. उनकी प्रार्थनाए सुनता हैं और उनकी सिफारिश पर लोगो के कास्ट दूर करता हैं. प्रतिष्ठा देता हैं. आपको चाहिए की उनकी शिक्षाओ को पढ़ कर नूर प्राप्त करे. यदि कोई संदेह हो तो परमात्मा से प्रार्थना करे की हे परमेश्वर? यदि यह व्यक्ति जो तेरी और से होने की घोषणा करता हैं और अपने आपको निष्कलंक अवतार कहता हैं. अपनी घोषणा में सच्चा हैं तो उसके मानने की हमे शक्ति प्रदान कर और हमारे मन को इस पर इमान लेन को खोल दे. पुन आप देखेगे की परमात्मा अवश्य आपको परोक्ष निशानों से उसकी सत्यता पर निश्चय दिलवाएगा. तो आप सत्य हृदय से मेरी और प्रेरित हो और अपनी कठिनाइयों के लिए प्रार्थना करावे अल्लाह ताला आपकी कठिनाइयों को दूर करेगा और मुराद पूरी करेगा. अल्लाह आपके साथ हो. पृष्ठ ६,७.८ वही हमारा कृष्ण.
पाठकगन स्वयं समझ गए होंगे की किस प्रकार मिर्जा अपनी कुटिल नीतिओ से मासूम हिन्दुओं को बेवकूफ बनाने की चेष्ठा कर रहा था पर पंडित लेखराम जैसे रणवीर के रहते उसकी दाल नहीं गली.
पंडित जी सत्य असत्य का निर्णय करने के लिए मिर्जा के आगे तीन प्रश्न रखे.
१. पहले मिर्जा जी अपने इल्हामी खुदा से धारावाही संस्कृत बोलना सीख कर आर्यसमाज के दो सुयोग्य विद्वानों पंडित देवदत शास्त्री व पंडित श्याम जी कृष्ण वर्मा का संस्कृत वार्तालाप में नाक में दम कर दे.
२. ६ दर्शनों में से सिर्फ तीन के आर्ष भाष्य मिलते हैं. शेष तीन के अनुवाद मिर्जा जी अपने खुदा से मंगवा ले तो मैं मिर्जा के मत को स्वीकार कर लूँगा.
३. मुझे २० वर्ष से बवासीर का रोग हैं . यदि तीन मास में मिर्जा अपनी प्रार्थना शक्ति से उन्हें ठीक कर दे तो में मिर्जा के पक्ष को स्वीकार कर लूँगा.
पंडित जी ने उससे पत्र लिखना जारी रखा. तंग आकर मिर्जा ने लिखा की यहीं कादियान आकार क्यों नहीं चमत्कार देख लेते. सोचा था की न पंडित जी का कादियान आना होगा और बला भी टल जाएगी.पर पंडित जी अपनी धुन के पक्के थे मिर्जा गुलाम अहमद की कोठी पर कादियान पहुँच गए. दो मास तक पंडित जी क़दियन में रहे पर मिर्जा गुलाम अहमद कोई भी चमत्कार नहीं दिखा सका.
इस खीज से आर्यसमाज और पंडित लेखराम को अपना कट्टर दुश्मन मानकर मिर्जा ने आर्यसमाज के विरुद्ध दुष्प्रचार आरंभ कर दिया.
मिर्जा ने ब्राहिने अहमदिया नामक पुस्तक चंदा मांग कर छपवाई. पंडित जी ने उसका उत्तर तकज़ीब ब्राहिने अहमदिया लिखकर दिया.
मिर्जा ने सुरमाये चश्मे आर्या (आर्यों की आंख का सुरमा) लिखा जिसका पंडित जी ने उत्तर नुस्खाये खब्ते अहमदिया (अहमदी खब्त का ईलाज) लिख कर दिया. मिर्जा ने सुरमाये चश्मे आर्या में यह भविष्यवाणी करी की एक वर्ष के भीतर पंडित जी की मौत हो जाएगी. मिर्जा की यह भविष्यवाणी गलत निकली और पंडित इस बात के ११ वर्ष बाद तक जीवित रहे.
पंडित जी की तपस्या से लाखों हिन्दू युवक मुस्लमान होने से बच गए. उनका हिन्दू जाती पर सदा उपकार रहेगा.
पंडित जी का अमर बलिदान
मार्च १८९७ में एक व्यक्ति पंडित लेखराम के पास आया. उसका कहना था की वो पहले हिन्दू था बाद में मुस्लमान हो गया अब फिर से शुद्ध होकर हिन्दू बनना चाहता हैं. वह पंडित जी के घर में ही रहने लगा और वही भोजन करने लगा. ६ मार्च १८९७ को पंडित जी घर में स्वामी दयानंद के जीवन चरित्र पर कार्य कर रहे थे . तभी उन्होंने एक अंगराई ली की उस दुष्ट ने पंडित जी को छुरा मर दिया और भाग गया. पंडित जी को हस्पताल लेकर जाया गया जहाँ रात को दो बजे उन्होंने प्राण त्याग दिए. पंडित जी को अपने प्राणों की चिंता नहीं थी उन्हें चिंता थी तो वैदिक धर्म की. उनका आखिरी सन्देश भी यही थे की “तहरीर (लेखन) और तकरीर (शास्त्रार्थ) का काम बंद नहीं होना चाहिए ” .पंडित जी का जीवन आज के हिन्दू युवको के लिए प्रेरणा दायक हैं की कभी विधर्मियो से डरे नहीं और जो निशक्त हैं उनका सदा साथ देवे.

Thursday, April 11, 2013

जीव तू सिद्धि के लिए पैदा हुआ है

 Source: http://www.aryasamaj.org/newsite/node/1491

ओउम् | वृषा ह्यसि राधसे जज्ञिषे वृष्णि ते शवः |
स्वक्षत्रं ते धृषन्मनः सत्राहमिन्द्र पौंस्यम् ||
ऋग्वेद 5|35|4
शब्दार्थ -
हे इन्द्र................हे ऐश्वर्य्याभिलाषिन् जीव ! तू
हि.....................सचमुच
वृषा...................बलवीर्त्तयुक्‍त, समर्थ
असि..................है, तू
राधसे.................सिद्धि के लिए, ऐश्वर्य्य के लिए
जज्ञिषे................उत्पन्न हुआ है,
ते......................तेरा
शवः...................बल
वृष्णि.................सुखवर्षक है
ते.....................तेरा
स्वक्षत्रम्..............घाव भरने का अपना सामर्थ्य है, अपनी त्रुटियों को पूरा कराने का अपना बल है |
ते.....................तेरा
मनः..................मन
धृषत्..................प्रौढ़ है और
पौंस्यम्...............पुंस्त्व, शौर्य्य
सत्राहम्...............सत्याचरणादि है |
व्याख्या -
संसार में मतमतान्तर जीव को निर्बल, हीनवीर्य्य मानते हैं | वेद जीव का वास्तविक स्वरूप बताता है | निस्सन्देह भगवान् की रचना अत्यन्त अद्‍भुत है, परन्तु जीव की कृति भी बहुत विलक्ष‌ण है | आग जलाना, कूप खोदना, नदियों से नहरें निकालना, कृषि करना, मकान बनाना आज साधारण से कार्य्य प्रतीत होते हैं, किन्तु सोचिये, जब पहले-पहल ये कार्य्य किये गये होंगे, तब ये कितने कष्टसाध्य, मस्तिष्क को थका देने वाले हुए होंगे, रेल, तार, जहाज, वायुयान, बेतार का तार, बिजली के प्रदीप, वनस्पति तेल, घृत, अन्न से भोजन पकाना, गुड़-शक्कर, खाँड, चीनी, फलों के आचार मुरब्बे, सुवर्ण आदि धातु के आभूषण, मोटर, पैट्रोल, मिट्टी का तेल, पीतल, ताम्र आदि के पात्र, लोहा आदि के उपकरण, शस्त्र-अस्त्र तथा अन्य उपयोगी पदार्थ, विविध धातुओं के भस्म, पानी से बर्फ, पत्थर से सीमेंट बनाना आदि कार्य्य कहाँ तक गिनाएँ ! युद्ध के उपयोगी आयुध‌ इनसे पृथक हैँ | मनुष्य ने इतने पदार्थों की सृष्‍टि कर डाली है कि उसे छोटा मोटा विधाता मानने में कोई दोष नहीं है | प्रतिदिन हमारे व्यवहार में आनेवाले विद्युत्प्रदीप आदि आज सरल प्रतीत होते हैं किन्तु उनके निर्माण में मनुष्यों को कितना परीश्रम करना पड़ा, इसकी कल्पना करना भी आज कठिन है | ये सारे के सारे पदार्थ जीव ने अपने और अपने जैसों के सुख के लिए बानाये हैं, अतः वेद कहता है - हि असि वृषा = सचमुच तू वृषा है, सुख बरसाने वाला है | तेरा स्वभाव तो सुखी होने तथा सुखी करने का है | तू संसार के लिए सुख के साधन जुटा, सबको सुखसम्पन्न बना | यदि मनुष्य केवल अपने सुखसाधन को ही जीवन का लक्ष्य मान लेता है तो भयंकर संघर्ष उत्पन्न हो जाता है | जब वह दूसरे के सुखों का भी विचार करता है तब उसका परिवार बढ़‌ता है और उससे उसकी समृद्धि की भी वृद्धि होती है | मनुष्य के लिए यह आवश्यक ही है कि वह सिद्धि के साधनों का अवलम्बन करे, क्योंकि वेद में उसे सम्बोधन करके कहा है कि तू - राधसे जज्ञिषे = सिद्धि के लिए उत्पन्न हुआ है | तुझे नरतन मिला ही इसलिए है कि तू संसार की सुख सामग्री उत्पन्न कर और बढ़ा | पूर्वजों के बुद्धि-वैभव तथा हस्तकौशल का लाभ हमने उठाया है | हमारी सफलता इसी में है कि आगे आने वाली सन्तान के लिए पूर्व की अपेक्षा अधिक सम्पत्ति छोड़ जाएँ | मनुष्य और पशु में यह भारी भेद है, पशु में सामाजिक जीवन की झलक अवश्य होती है किन्तु जिस प्रकार मनुष्यों में एक दूसरे के सुख-दुख में सम्मिलित होने तथा सन्तान के लिए सुख-सामग्री छोड़ जाने की स्वाभाविक भावना है, पशुओं में उसका सर्वथा अभाव है |
मनुष्य जन्म सिद्धि के लिए हुआ है, असफलता के लिए नहीं हुआ है | वैदिक तो दृढ़‌ विश्‍वास से कहता है - अजैष्माद्य‌ (अ. 16|6|1) = आज ही हमारा विजय है | कल तक की प्रतीक्षा सह्य नहीं है | जाने कल क्या हो जाए ? सिद्धि के लिए, कार्य्यसिद्धि के लिए, बल चाहिए | बलाभिलाषी को वेद कहता है - वृष्णि ते शवः = तेरा बल भी प्रबल है, सुखदायी है | यदि कोई विघ्न आये तो घबराने की आवश्यक्‍ता नहीं, क्योंकि तेरा बल जहाँ वृष्णि है, वहाँ स्वक्षत्र अपनी त्रुटि पूर्ण करने में समर्थ है | तेरा मन भी धृषत् = प्रौढ़‌ है, और - सत्राहं पौंस्यम् = वीरता सदाचरण आदि है | इस अन्तिम वाक्य में जीव के सामर्थ्य को मूल बताया गया है | इसे कभी विस्मरण न करना चाहिए | सत्यस्वरूप आत्मा यदि सत्य से विरहित हो जाता है, तो अपने स्वरूप का आप विघात करता है | सत्य से भ्रष्‍ट होने पर पाप-सर्प उसे डस लेता है, और उसकी अत्मिक मृत्यु हो जाती है | जिस लक्ष्य के लिए जीव जगत् में आया था, उससे वञ्चित हो जाया करता है | कितने हैं जिन्हें तत्व का ज्ञान है !
स्वामी वेदानन्द तीर्थ सरस्वती
(स्वाध्याय‌-सन्दोह से साभार उद्धृत‌)

Friday, December 9, 2011

गोरक्षा आदि विषयों पर आचार्य आर्य नरेश का व्याख्यान

व्यख्यान की विशेषताएं

(१) वेदों में गोहत्या निषेध |
(२) वेदों की गलत व्याख्याओं का सप्रमाण खंडन |
(३) भारतीय सविंधान में गोरक्षा का उपदेश |
(४) गोपदार्थों के वैज्ञानिक  लाभ |
(५) नेताओं का स्वार्थ, आदि |






Wednesday, November 23, 2011

कर्मफल विवरण


 कर्मो का फल कब , कैसा , कितना मिलता है , यह जिज्ञासा सभी धार्मिक  व्यक्तियों
के मन में होती है  । कर्मफल देने का कार्य मुख्य रूप से ईश्वर द्वारा संचालित
व नियंत्रित है , वही इसके पूरे विधान को  जानता है  । मनुष्य इस विधान को कम
अंशों में व मोटे तौर पर ही जान पाया है , उसका सामर्थ्य ही इतना है । ऋषियों
ने अपने ग्रंथो में कर्मफल की कुछ मुख्य – मुख्य महत्वपूर्ण बातों का वर्णन
किया है , उन्हे इस लेख में व  संबंधित चित्र में प्रस्तुत करने का प्रयास किया
गया है ।
कर्मफल सदा कर्म के अनुसार मिलते है ।  फल की दृष्टि से कर्म दो प्रकार के
होते है  -
१. सकाम कर्म
२. निष्काम कर्म
सकाम कर्म उन कर्मो को कहते है , जो लौकिक फल ( धन , पुत्र , यश आदि ) को
प्राप्त करने की इच्छा से किए जाते है । तथा निष्काम कर्म वे होते है , जो
लौकिक फलों को प्राप्त करने के उद्देश्य से न किए जाए बल्कि ईश्वर / मोक्ष
प्राप्ति की इच्छा से किए जाएँ ।
  सकाम कर्म तीन प्रकार के होते है  -  अच्छे  , बुरे  व  मिश्रित ।
अच्छे कर्म – जैसे सेवा ,दान , परोपकार करना आदि  ।  बुरे कर्म – जैसे झूठ
बोलना , चोरी करना आदि । मिश्रित कर्म – जैसे खेती करना आदि , इसमें पाप व
पुण्य (कुछ अच्छा व कुछ बुरा ) दोनों मिले – जुले रहते है ।
  निष्काम कर्म सदा अच्छे ही होते है , बुरे कभी नहीं होते । सकाम कर्मो
का फल अच्छा या बुरा होता है , जिसे इस जीवित में या मरने के बाद मनुष्य पशु ,
पक्षी , आदि शरीरों में अगले जीवन में जीवन अवस्था में ही भोगा जाता है ।
निष्काम कर्मों का फल ईश्वरीय आनन्द की प्राप्ति के रूप में होता है , जिसे
जीवित रहते हुए समाधि अवस्था में व मृत्यु के बाद बिना जन्म लिये मोक्ष अवस्था
में भोगा जाता है ।
  जो कर्म इसी जन्म में फल देने वाले होते है , उन्हे
"द्रष्टजन्मवेदनीय" कहते है और जो कर्म अगले किसी जन्म में फल देने वाले होते
हैं , उन्हे "अद्रष्टजन्मवेदनीय" कहते है इन सकाम कर्मो से मिलने वाले फल तीन
प्रकार के
होते है -  १. जाति   २.  आयु   ३.  भोग  । समस्त कर्मो का समावेश इन तीनों
विभागों में हो जाता है ।   जाति अर्थात मनुष्य , पशु , पक्षी , कीट , पतंग ,
वृक्ष , वनस्पति आदि विभिन्न  योनियाँ , आयु अर्थात जन्म से लेकर मृत्यु तक का
बीच का समय , भोग अर्थात विभिन्न प्रकार के भोजन , वस्त्र , मकान , आदि साधनों
की प्राप्ति । जाति , आयु व भोग इन तीनों से जो  ' सुख – दुख ' की प्राप्ति
होती है , कर्मो का वास्तविक फल ही तो वही है ।  किन्तु सुख – दुख रूपी फल का
साधन होने के कारण  ' जाति , आयु , भोग ' को फल नाम दे दिया गया है ।
  द्रष्टजन्मवेदनीय कर्म  किसी एक फल =आयु व भोग को दे सकते है । जैसे
उचित आहार – विहार , व्यायाम , ब्रह्मचर्य , निद्रा , आदि के सेवन से शरीर की
रोगों से रक्षा की जाति है तथा बल-वीर्य , पुष्टि , भोग सामर्थ्य व आयु को
बढ़ाया जा सकता है , जबकि अनुचित आहार , विहार आदि से बल , आयु आदि घट भी जाते
है ।
  द्रष्टजन्मवेदनीय कर्म 'जाति रूप फल ' को देने वाले नहीं होते हैं
क्योंकि जाति (= योनि ) तो इस जन्म में मिल चुकी है , उसे जीते जी बदला नहीं जा
सकता , जैसे मनुष्य शरीर की जगह पशु शरीर बदल देना ।  हाँ मरने
के बाद तो शरीर बदल सकता है , पर मरने के बाद नई  योनि को देने वाला कर्म
"अद्रष्टजन्मवेदनीय" कहा जाएगा न की द्रष्टजन्मवेदनीय ।
  अद्रष्टजन्मवेदनीय कर्म दो प्रकार के होते है -  १.  ' नियत विपाक '
२. 'अनियत विपाक '  ।   कर्मो का ऐसा समूह  जिनका फल निश्चित हो चुका हो और जो
अगले जन्म में फल देने वाला हो उसे  ' नियत विपाक '
कहते है ।  कर्मो का ऐसा समूह जिसका फल किस रूप में व कब मिलेगा , यह निश्चित न
हुआ हो उसे  ' अनियत विपाक ' कहते है ।
  कर्म फल को शास्त्र में ' कर्माशय ' नाम से कहा गया है ।  ' नियत विपाक
कर्माशय ' के सभी कर्म परस्पर मिलकर ( संमिश्रित रूप में ) अगले जन्म में जाति
, आयु , भोग प्रदान करते है । इन तीनों का संक्षिप्त विवरण निम्न
प्रकार से जानने योग्य है –
१. जाति -  इस जन्म में किए गए कर्मों का सबसे बड़ा महत्वपूर्ण फल अगले
जन्म में जाति – शरीर रूप में मिलता है । मनुष्य , पशु , पक्षी , कीट , पतंग
स्थावर – वृक्ष के शरीरों को जाति के अंतर्गत ग्रहण किया जाता है । यह जाति भी
अच्छे व निम्न स्तर की होती है  यथा  मनुष्यों में  पूर्णांग , सुंदर , कुरूप,
बुद्धिमान , मूर्ख  आदि , पशुओं में गाय , घोडा , गधा सूअर आदि ।
२. आयु – नियत विपाक कर्माशय का दूसरा फल आयु अर्थात जीवनकाल के रूप में
मिलता है ,  जैसी जाति (शरीर = योनि ) होती है , उसी के अनुसार आयु  भी होती है
। यथा मनुष्य की आयु सामान्यतया १०० वर्ष ; गाय , घोडा आदि पशुओं की २५ वर्ष ;
तोता , चिड़िया आदि पक्षियों की २- ४ वर्ष ;  मक्खी , मच्छर , भौरा , तितली आदि
कीट पतंगो की २–४-६ मास की होती है । मनुष्य अपनी आयु को स्वतंत्रता से एक सीमा
तक  घटा – बढ़ा भी सकता है ।
३. भोग – 'नियत विपाक कर्माशय ' का तीसरा फल भोग (=सुख –दुख को प्राप्त
कराने वाले साधन ) के रूप में मिलता है । जैसी जाति (शरीर=योनि ) होती है उसी
जाति की अनुसार भोग होते है । जैसे मनुष्य अपने शरीर , बुद्धि , मन , इन्द्रिय
आदि साधनों से मकान , कार , रेल , हवाई जहाज , मिठाई , पंखा , कूलर आदि साधनों
को बनाकर , उनके प्रयोग से विशेष सुख को भोगता है । किन्तु गाय , भैस , घोडा ,
कुत्ता , आदि पशु केवल घास , चारा , रोटी आदि ही खा सकते है , कार – कोठी नहीं
बना सकते है । शेर , चीता , भेड़िया आदि हिंसक प्राणी केवल माँस ही खा सकते है ,
वे मिठाई , गाड़ी , मकान , वस्त्र आदि की सुविधाएँ उत्पन्न नहीं कर सकते है ।
जैसा की पूर्व कहा गया की  ' नियत विपाक कर्माशय ' से मिली आयु व भोग पर
'द्रष्टजन्मवेदनीय कर्माशय' का प्रभाव पड़ता है , जिससे आयु व भोग घट-बढ़ सकते
हैं , पर ये एक सीमा तक (उस जाति के अनुरूप सीमा में ) ही बढ़ सकते है ।
   'अद्रष्टजन्मवेदनीय कर्माशय' के अंतर्गत  ' अनियतविपाक' कर्मो
का फल जाति , आयु भोग के  रूप में ही मिलता है , परंतु यह फल कब व किस विधि से
मिलता है , इसके लिए शास्त्र में तीन स्थितियां ( गतियां ) बताई गई  है ।
१. कर्मो का नष्ट हो जाना ,  २.  साथ मिलकर फल देना   ३. दबे रहेना ।
१. प्रथम गति -  कर्मों का नष्ट हो जाना – वास्तव में बिना फल को दिए कर्म
कभी भी नष्ट नहीं होते , किन्तु यहाँ प्रकरण में नष्ट होने का तात्पर्य बहुत
लंबे काल तक लुप्त हो जाना है । किसी भी जीव के कर्म सर्वांश में कदापि समाप्त
नहीं होते , जीव के समान वे भी अनादि – अनंत है । कुछ न कुछ मात्र संख्या में
तो रहेते ही है । चाहे जीब मुक्ति में भी क्यों न चला जावे ।    अविद्या ( राग
– द्वेष ) के संस्कारों को नष्ट करके जीव मुक्ति को प्राप्त कर लेता है , जितने
कर्मो का फल उसने अब अक भोग लिया है , उनसे अतिरिक्त जो भी कर्म बच जाते है ,
वे मुक्ति के काल तक ईश्वर से ज्ञान में बने रहेते है । इनहि बचे कर्मो के आधार
पर मुक्ति काल पश्चात जीव को पुनः मनुष्य शरीर मिलता है । तब तक ये कर्म फल
नहीं देते , यही नष्ट होने का अभिप्राय है ।
२. दूसरी गति – साथ मिलकर फल देना – अनेक स्थितियाँ में ईश्वर अच्छे व
बुरे कर्मों का फल साथ – साथ भी देता है । अर्थात अच्छे कर्मो का फल अच्छी जाति
, आयु और भोग मिलता है , किन्तु साथ में कुछ अशुभ कर्मों का फल दुख भी भुगा
देता है । इसी प्रकार अशुभ का प्रधान रूप से निम्न स्तर की जाति , आयु , भोग
रूप फल देता है , किन्तु साथ में कुछ शुभ कर्मों का फल सुख भी मिल जाता है ।
उदाहरण के लिए शुभ कर्मों का फल मनुष्य जन्म तो मिला , किन्तु अन्य अशुभ कर्मों
के कारण उस शरीर को अंधा , लूला , या कोढ़ी बना दिया । दूसरे पक्ष में प्रधानता
से अशुभ कर्मों का फल गाय , कुत्ता , आदि पशु योनि रूप में मिला , किन्तु कुछ
शुभ कर्मों के कारण अच्छे देश में अच्छे घर में मिला , परिणाम स्वरूप सेवा ,
भोजन आदि अच्छे स्तर के मिले ।
३. तीसरी गति – कर्मों का दबे रहेना – मनुष्य अनेक प्रकार के कर्म करता है
, उन सारे कर्मो का फल किसी एक ही योनि – शरीर में मिल जाए , यह संभव नहीं है ।
अतः जिन कर्मों की प्रधानता होती है , उनके अनुसार अगला जन्म मिलता है । जिन
कर्मों की अप्रधानता रहती है , वे कर्म पूर्व संचित कर्मों मे जाकर जुड़ जाते है
और तब तक फल नहीं देते , जब तक की उनही के सदृश , किसी मनुष्य शरीर में मुख्य
कर्म न कर लिए जाए । इस तीसरी स्थिति को कर्मों का दबे रहेना नाम से कहा जाता
है ।
    उदाहरण – किसी मनुष्य ने अपने जीवन में मनुष्य जाति ,
आयु , भोग दिलाने वाले कर्मों के साथ साथ कुछ कर्म सूअर की जाति , आयु , भोग
दिलाने वाले भी कर दिए , प्रधानता – अधिकता के कारण अगले जन्म में मनुष्य शरीर
मिलेगा और सूअर की योनि देने वाले कर्म तब अक दबे रहेंगे , जब तक की सूअर की
योनि देने वाले कर्मों की प्रधानता न हो जाए ।
    उपयुक्त विवरण का सार यह निकलता की इस जन्म में दुखों
से बचने तथा सुख को प्राप्त करने के लिए तथा मोक्ष की प्राप्ति के लिए हमें सदा
शुभ कर्मों को ही करते रहना चाहिए और उनको भी निष्काम भावना से करना चाहिए ।
आभार :- आचार्य ज्ञानेश्वरार्य , दार्शनिक निबंध.

Wednesday, May 11, 2011

Essays on Manusmriti - मनुस्मृति पर निबंध

Today, a misleading notion is being circulated among masses by some people that Manusmriti discriminates with low castes and women, which is far from truth. You can read the two book below, which will tell you the truth. आज जनसामान्य को भ्रमित करने वाले एक विचार का प्रचार कई लोगों द्वारा किया जा रहा है कि मनुस्मृति में निम्नवर्ग तथा स्त्रियों से भेदभाव किया गया है, जो कि सत्य से परे है | कृपया नीचे दी गयी दो पुस्तकों का अध्यान करें जिससे आपको सत्य का पता चलेगा |



ManuSmriti Essays


Manu Ka Virodh Kyon Why Oppose Manu Hindi

Tuesday, May 3, 2011

Manu Smriti and Women

 
 
 
 

 

Continuing our evaluation of Manu Smriti, let us now review the third allegation on Manu Smriti – that Manu Smriti is grossly anti-women and denigrates the Matri Shakti (motherly force).

We have already discussed how Manu Smriti has been grossly interpolated. However it is very easy to identify the fraud verses and separate them from the original Manu Smriti.

If we review this original Manu Smriti, one can proudly assert that there is perhaps no other text in world (except Vedas of course!) that accords so much of respect and rights to women. Even the modern feminist books would have to seek further amendments to match up to Manu Smriti.

I am yet to read a text that so unambiguously proclaims that women form the foundation of a prosperous society.

3.56. The society that provides respect and dignity to women flourishes with nobility and prosperity. And a society that does not put women on such a high pedestal has to face miseries and failures regardless of howsomuch noble deeds they perform otherwise.

This is not merely a flattery of womenfolk. It is a truth – very harsh for those who denigrate women and the sweetest nectar for those who glorify the motherly force. This law of nature is applicable to a family, society, cult, nation or entire humanity.

We became slaves despite all our greatness because we neglected this advice of Maharshi Manu. We did not heed to this advice for centuries even after invasions, and hence our situation turned from bad to worse. In late nineteenth century, thanks to efforts of reformers like Raja Ram Mohun Roy, Ishwar Chandra Vidyasagar and Swami Dayanand Saraswati, we started considering the Vedic message seriously and hence observed a gradual upturn.

Many conservative Muslim countries of today consider women as half-intelligent and unworthy of equal rights at par with men. Hence these places are worse than hell. Europe followed the derogatory Biblical concept of women for ages and hence was among most superstitious places in world. Then, thanks to reformation era, things changed and Bible ceased to be taken seriously. As a result rapid progress happened. But now women is typically stereotyped as a sensual object of pleasure and not as a respectful motherly force. And hence, despite all the material progress,  Western world is still inflicted with insecurity and lack of inner peace.

Lets review some more shlokas from Manu Smriti and attempt to imbibe them in our society:

Importance of happy women

3.55. A father, brother, husband or brother-in-law should keep their daughter, sister, wife or sister-in-law happy and pleased through gentle words, respectful behavior, gifts etc. Those who desire prosperity should ensure that women in their family are always happy and do not face miseries.

3.57. A family where women remain unhappy due to misdeeds of their men is bound to be destroyed. And a family where women are always happy is bound to prosper forever.

3.58. A family- where women feel insulted or discriminated against and curse their menfolk- is destroyed in same manner as poison kills all those who eat it.

3.59. One desiring glory should ensure that he keeps women in the family by giving them respect and pleasing them with good ornaments, dresses, food. Women should always be revered under all circumstances.

3.62. A person who does not keep her wife happy causes misery for entire family. And if wife is happy, entire family appears as happiness incarnate.

9.26. Women give birth to next generation. They enlighten the home. They bring fortune and bliss. Hence women are synonymous to Prosperity.

This shloka forms the basis of women being called Ghar ki Laxmi or 'Goddess of Fortune in Home' in India even till today.

9.28. Woman is the source of all kinds of happiness in all generations – be it from children, or from noble benevolent deeds or through conjugal bliss or through service of elders.

In other words, woman is the primary source of bliss in many forms – sometimes as mother, sometimes as daughter, sometimes as wife and sometimes as a partner in spiritual deeds. It also means that participation of women is necessary for conduct of any religious or spiritual activity.

9.96. Man and Woman are incomplete without each other. Hence the most ordinary religious duty would demand participation of both.

Thus, those who deny Vedas or Vedic rituals to women are anti-Hindu and anti-Humanity.

4.180. A wise man should not indulge in fights and arguments with his family members including mother, daughter and wife.

9.4. A father who does not marry his daughter to a deserving groom deserves condemnation. A husband who does not fulfill just demands of her wife deserves condemnation. A son who does not take care of her widow mother deserves condemnation.

 

Polygamy is a sin

9.101. Husband and Wife should remain together till death. They should not approach any other partner, nor commit adultery. This, in summary, is the Dharma or religion of all human beings.

Thus those societies which justify polygamy or sex-slavery or temporary marriage are bound to suffer miseries because they neglect the core tenet of Dharma.

 

Autonomy of Women

9.11.  Women should be provided autonomy and leadership in managing the finances, maintaining hygiene, spiritual and religious activities, nutrition and overall management of home.

The shloka clearly puts aside false claims that women do not have right to conduct religious rituals of Vedas. On contrary, women should lead such rituals. Thus all those people who suggest that women do not have right to study or practice Vedas are against Manu and Vedas. Such bigoted people are the cause for misery of the nation. We should simply not tolerate such mindsets that demean women.

9.12. A woman who is kept constrained in a home by noble men (husband, father, son) is still insecure. Thus it is futile to restrict women. Security of women would come only through her own capabilities and mindset.

This shloka explains the futility to attempting to restrict a woman to home in name of providing her security. On contrary, to secure her, she should be given the right training so that she can defend herself and avoid getting misled by bad company. The prevailing notion of cornering women within a small home is against Manu's ideology.

 

Protection of Women

9.6. Even a weak husband should attempt to protect his wife.

9.5 Women should keep themselves away from vices. Because when women lose character, the entire society is destroyed.

5.149. A woman should always ensure that she is protected. It is duty of father, husband and son to protect her.

Please note that this protection does not imply restriction as clear from verse 9.12 cited in previous section. But a society that does not protect its womenfolk from attacks of perverts writes its own destiny of doom.

It is because of this inspiration that many a brave warriors laid their lives to protect the dignity of their women when butchers from West and Central Asia invaded our nation. The sacrifices of Alha-Udal and valor of Maharana Pratap brings a gush of glory in our blood.

Its a shame that despite such a chivalrous foundation of our culture, we have women either oppressed in backyard of homes or commoditized as sensual-items instigating lust. When we ourselves have turned invaders instead of protectors of dignity of women, who can help us!

 

Marriage of Women

9.89. It is better to keep the daughter unmarried than force her to marry an undeserving person.

9.90-91. A woman can choose her own husband after attaining maturity. If her parents are unable to choose a deserving groom, she can herself choose her husband.

Thus the concept of parents deciding the groom for their daughter is against Manu. A mature daughter has full rights to choose her husband. Parents act as facilitators for the marriage and not final decision makers, as wrongly practiced in many societies.

 

Property Rights of Women

9.130. A daughter is equivalent to a son. In her presence, how can any one snatch away her right over the property.

9.131. A daughter alone has the right over personal property of her mother.

Thus, as per Manu, while daughter has equal share as her brothers over property of her father, she has exclusive rights over property of her mother. The reason for this special treatment of women is to ensure that women are never at mercy of anyone. After all happy dignified women form the foundation of a happy society!

9.212-213. If a person has no kins or wife, then his wealth be distributed equally among his brothers and sisters. If the elder brother refuses to give due share to other brothers and sisters, he is punishable by law.

To further ensure safety of women, Manu recommended harsh punishments for those who rob away wealth of a woman, even if they are her relatives.

8.28-29. If a woman is alone because she has no children, or no men to provide for her security in her family, or is widow, or whose husband has gone abroad, or who is unwell, then it is duty of the government to ensure her safety and security. If her wealth is robbed by her relatives or friends, then the government should provide strict punishment to the culprits and have her wealth returned back.

 

Prohibition of Dowry

3.52. Those relatives who rob away or thrive on wealth, property, vehicles or dresses of a woman or her family are wiliest of people.

Thus any kind of dowry is a strict NO NO as per Manu Smriti. No one should dare attempt to take away the property of a woman.

The next shloka takes this concept further and states that even slightest exchange of tangible items amounts to sale/purchase and hence against principles of noble marriage. In fact Manu Smriti suggests that a marriage along with dowry is marriage of 'Devils' or Asuri Vivah.

 

Strict Punishment for harming Women

8.323. Those who abduct women should be given death sentence.

9.232. Those who kill women, children or scholarly virtuous people should be given strictest punishment.

8.352. Those who rape or molest women or incite them into adultery should be given harshest punishment that creates fear among others to even think of such a crime.

Interestingly, a judge of sessions court suggested today that castration seems the best punishment to prevent alarming increase in rape cases. Refer http://timesofindia.indiatimes.com/india/Castrate-child-rapists-Delhi-judge-suggests/articleshow/8130553.cms

We are in agreement with such a law.

8. 275. One should be punished if he puts false allegations or demeans mother, wife or daughter.

8.389. Those who abandon their mother, father, wife or children without any reasonable reason should face severe punishments.

 

Ladies First

The concept of Ladies First seems to originate from Manu Smriti.

2.138. A man in a vehicle should give way to the following – aged person, diseased person, one carrying burden, groom, king, student and a woman.

3.114. One should feed the following even before feeding the guests – newly married women, girls, and pregnant women.

May we all work together to implement this true Manuvaad by showering respect and ensuring dignity of the motherly force. How else can prosperity be restored in the society, nation and world?

References: Works of Dr Surendra Kumar, Pt Gangaprasad Updhyaya, and Swami Dayanand Saraswati.

Monday, May 2, 2011

Manu Smriti and Punishment


Source: http://agniveer.com/4272/manu-smriti-and-punishment/

In this brief article, we shall review the second popular allegation on Maharshi Manu – that he legalized harsh punishments for Shudras and special penal provisions for upper-castes and especially Brahmins.
As we have reviewed in previous article http://agniveer.com/3308/manu-smriti-and-shudras, around 1471 out of 2685 shlokas have been proven to be later adulterations.
Thus all those shlokas that recommend special provisions for upper-castes and harsher punishments for Shudras are part of these bogus adulterations that are very easily identifiable.
If we review the original Manu Smriti, that is based on Vedas, the situation is completely opposite. As per Manu, penal system takes into account the education, social influence, designation, nature of crime and impact of crime while recommending punishments.
Manu offers greater respect and status to Brahmins – the educated ones. Dwijas or twice born or those who completed their education are provided heightened standing in society so far they conduct noble deeds. But when it comes to crimes, they also have to face more severe punishments. With greater potentials, come greater responsibilities and stricter punishments when one fails to fulfill those responsibilities.

(Here, I would like to emphasize once again that Brahmin or Dwija has nothing to do with birth. Its all about education.)

If such a penal code be adopted in our nation, bulk of the crimes and corruptions would cease to exist and politics will become a field where any Tom, Dick or Harry does not dare to enter and pollute like it is happening today.
For a more detailed coverage, please refer Chapter 6 of Satyarth Prakash or Light of Truth by Swami Dayanand Saraswati which is available at http://agniveer.com/2037/satyarth-prakash/ and http://agniveer.com/2092/light-of-truth/
Also review Chapter 8,9 and 10 of Manu Smriti edited by Dr Surendra Kumar (Aarsh Sahitya Prachar Trust, Delhi)
We reproduce a few shlokas that are relevant in the current discussion.
8.335: Be it the father, mother, teacher, friend, wife, son or priest, one who conducts a crime is punishable by the ruler.
8.336: When the punishment for an ordinary citizen is 1 cent, the punishment for those in ruling class should be 1000 cents. In other words, the punishment for those in legislation, executive or judiciary should be 1000 times that for ordinary citizens.
The concept of immunity to MPs and Judges from impeachment and legal framework is shamelessly against Manu Smriti.

Swami Dayanand adds here – Even a peon in any department of government should have a punishment that is 8 times that for ordinary citizens. And all other office bearers should have a punishment proportionate to their designation till it is 1000 times for the topmost designation. Because unless government officials have a punishment that is significantly harsher compared to ordinary citizens, the government would destroy the public. Just as taming a lion demands harsher control and a goat much lesser control, similarly to ensure safety of public, government officials should have extremely harsh punishments.
Deviation from this penal code is the root cause of all these corruption stories. Unless this is rectified, all other efforts to transform the nation would fall flat.
8.337-338: If one conducts a theft willingly and in full senses knowing the implications, he should be penalized 8 times that of ordinary thief if he is a Shudra. The penalty should be 16 times if he is a Vaishya, 32 times if he is a Kshatriya and 64 times if he is a Brahmin. The punishment can be even 100 times or 128 times if he is a Brahmin. In other words, the punishment should be directly proportional to knowledge and social status of the criminal.
Thus contrary to popular perceptions, when it comes to punishments, Manu Smriti is most lenient on Shudras because of their lack of education, significantly harsher on Brahmins and harshest on the government officials. In current context, the Prime Minister, Chief Minister, Chief Justice, Leaders of National Political Parties deserve harshest punishments if they do something wrong. The Ministers, MPs, MLAs, Governors, Judges come the next. Then comes the turn of Bureaucrats and Government Officials. And even a peon of a Government Department deserves much harsher punishment compared to ordinary citizens.
Among ordinary citizens, the educated class and those with influential social status who neglect their duties deserve harsher punishments.
As we said, with greater responsibilities come greater punishments. This is the real penal system of Manu Smriti.
And if so-called birth based Brahmins indeed want to claim supremacy over so-called birth-based Shudras, then they should also be ready to accept stricter punishments for themselves. Most birth-based Brahmins do not know about Vedas. Now Manu says that those Brahmins who put efforts in other areas except Vedas are Shudras. Refer 2.168. This is insult to Brahmins. As per fake verses of Manu Smriti, the minimal repentance for harming a Brahmin even verbally is to remain hungry for a day (11.204 as per fake Manu Smriti). Thus, those who claim birth-right to Brahminism based on fake verses of Manu Smriti should remain hungry for at least 64 days continuously unless they are masters of Vedas and completely free of any vices including harsh language! (Punishment for Brahmins is 64 – 128 times that of ordinary mortals).
You cannot have "Heads I win and Tails you lose". Either be logical and honest, follow the real Manu Smriti and reject birth-based caste-system totally OR be prepared for a minimum of 64 days hunger strike until you master Vedas. And then continue the strike for another 64 days if you still do not master Vedas in 64 days!
The bottomline is that birth-based caste system does not even vaguely fit in Manu's scheme of society. Those who support it or recommend special treatment of birth-based Brahmins in matters of punishments are shamelessly against Manu, Vedas and humanity in general. And as per Manu, such persons who cause harm to society deserve extremely severe punishments.
The notion of Shudras deserving harsher punishments is simply a hoax.
May we all adopt the penal system proposed by Manu Smriti to save the nation from claws of corrupt politicians, judiciary and other pseudo-intellectuals.
Manusmriti 7.17-20:
A powerful and rational penal system (Dand) is the true ruler. Dand is the propagator of Justice. Dand is the discipliner. Dand is the administrator. Dand alone protects the 4 Varnas and 4 Phases of life.
Dand protects the public and Dand keeps the nation awakened. That is why wise people proclaim that Dand is the Dharma.
When Dand is used with wisdom and responsibility, it brings prosperity and bliss among public. And when Dand is used recklessly, it destroys the ruler.
It seems that time has come that the corrupt leaders and officials are destroyed because they have misused the Dand a bit too much! Its also time that we use Dand to punish those who support birth-based discrimination in any manner.
This alone can save society, nation and humanity. There is no other way!

References: Works of Dr Surendra Kumar, Pt Gangaprasad Updhyaya, and Swami Dayanand Saraswati.