Thursday, April 11, 2013

जीव तू सिद्धि के लिए पैदा हुआ है

 Source: http://www.aryasamaj.org/newsite/node/1491

ओउम् | वृषा ह्यसि राधसे जज्ञिषे वृष्णि ते शवः |
स्वक्षत्रं ते धृषन्मनः सत्राहमिन्द्र पौंस्यम् ||
ऋग्वेद 5|35|4
शब्दार्थ -
हे इन्द्र................हे ऐश्वर्य्याभिलाषिन् जीव ! तू
हि.....................सचमुच
वृषा...................बलवीर्त्तयुक्‍त, समर्थ
असि..................है, तू
राधसे.................सिद्धि के लिए, ऐश्वर्य्य के लिए
जज्ञिषे................उत्पन्न हुआ है,
ते......................तेरा
शवः...................बल
वृष्णि.................सुखवर्षक है
ते.....................तेरा
स्वक्षत्रम्..............घाव भरने का अपना सामर्थ्य है, अपनी त्रुटियों को पूरा कराने का अपना बल है |
ते.....................तेरा
मनः..................मन
धृषत्..................प्रौढ़ है और
पौंस्यम्...............पुंस्त्व, शौर्य्य
सत्राहम्...............सत्याचरणादि है |
व्याख्या -
संसार में मतमतान्तर जीव को निर्बल, हीनवीर्य्य मानते हैं | वेद जीव का वास्तविक स्वरूप बताता है | निस्सन्देह भगवान् की रचना अत्यन्त अद्‍भुत है, परन्तु जीव की कृति भी बहुत विलक्ष‌ण है | आग जलाना, कूप खोदना, नदियों से नहरें निकालना, कृषि करना, मकान बनाना आज साधारण से कार्य्य प्रतीत होते हैं, किन्तु सोचिये, जब पहले-पहल ये कार्य्य किये गये होंगे, तब ये कितने कष्टसाध्य, मस्तिष्क को थका देने वाले हुए होंगे, रेल, तार, जहाज, वायुयान, बेतार का तार, बिजली के प्रदीप, वनस्पति तेल, घृत, अन्न से भोजन पकाना, गुड़-शक्कर, खाँड, चीनी, फलों के आचार मुरब्बे, सुवर्ण आदि धातु के आभूषण, मोटर, पैट्रोल, मिट्टी का तेल, पीतल, ताम्र आदि के पात्र, लोहा आदि के उपकरण, शस्त्र-अस्त्र तथा अन्य उपयोगी पदार्थ, विविध धातुओं के भस्म, पानी से बर्फ, पत्थर से सीमेंट बनाना आदि कार्य्य कहाँ तक गिनाएँ ! युद्ध के उपयोगी आयुध‌ इनसे पृथक हैँ | मनुष्य ने इतने पदार्थों की सृष्‍टि कर डाली है कि उसे छोटा मोटा विधाता मानने में कोई दोष नहीं है | प्रतिदिन हमारे व्यवहार में आनेवाले विद्युत्प्रदीप आदि आज सरल प्रतीत होते हैं किन्तु उनके निर्माण में मनुष्यों को कितना परीश्रम करना पड़ा, इसकी कल्पना करना भी आज कठिन है | ये सारे के सारे पदार्थ जीव ने अपने और अपने जैसों के सुख के लिए बानाये हैं, अतः वेद कहता है - हि असि वृषा = सचमुच तू वृषा है, सुख बरसाने वाला है | तेरा स्वभाव तो सुखी होने तथा सुखी करने का है | तू संसार के लिए सुख के साधन जुटा, सबको सुखसम्पन्न बना | यदि मनुष्य केवल अपने सुखसाधन को ही जीवन का लक्ष्य मान लेता है तो भयंकर संघर्ष उत्पन्न हो जाता है | जब वह दूसरे के सुखों का भी विचार करता है तब उसका परिवार बढ़‌ता है और उससे उसकी समृद्धि की भी वृद्धि होती है | मनुष्य के लिए यह आवश्यक ही है कि वह सिद्धि के साधनों का अवलम्बन करे, क्योंकि वेद में उसे सम्बोधन करके कहा है कि तू - राधसे जज्ञिषे = सिद्धि के लिए उत्पन्न हुआ है | तुझे नरतन मिला ही इसलिए है कि तू संसार की सुख सामग्री उत्पन्न कर और बढ़ा | पूर्वजों के बुद्धि-वैभव तथा हस्तकौशल का लाभ हमने उठाया है | हमारी सफलता इसी में है कि आगे आने वाली सन्तान के लिए पूर्व की अपेक्षा अधिक सम्पत्ति छोड़ जाएँ | मनुष्य और पशु में यह भारी भेद है, पशु में सामाजिक जीवन की झलक अवश्य होती है किन्तु जिस प्रकार मनुष्यों में एक दूसरे के सुख-दुख में सम्मिलित होने तथा सन्तान के लिए सुख-सामग्री छोड़ जाने की स्वाभाविक भावना है, पशुओं में उसका सर्वथा अभाव है |
मनुष्य जन्म सिद्धि के लिए हुआ है, असफलता के लिए नहीं हुआ है | वैदिक तो दृढ़‌ विश्‍वास से कहता है - अजैष्माद्य‌ (अ. 16|6|1) = आज ही हमारा विजय है | कल तक की प्रतीक्षा सह्य नहीं है | जाने कल क्या हो जाए ? सिद्धि के लिए, कार्य्यसिद्धि के लिए, बल चाहिए | बलाभिलाषी को वेद कहता है - वृष्णि ते शवः = तेरा बल भी प्रबल है, सुखदायी है | यदि कोई विघ्न आये तो घबराने की आवश्यक्‍ता नहीं, क्योंकि तेरा बल जहाँ वृष्णि है, वहाँ स्वक्षत्र अपनी त्रुटि पूर्ण करने में समर्थ है | तेरा मन भी धृषत् = प्रौढ़‌ है, और - सत्राहं पौंस्यम् = वीरता सदाचरण आदि है | इस अन्तिम वाक्य में जीव के सामर्थ्य को मूल बताया गया है | इसे कभी विस्मरण न करना चाहिए | सत्यस्वरूप आत्मा यदि सत्य से विरहित हो जाता है, तो अपने स्वरूप का आप विघात करता है | सत्य से भ्रष्‍ट होने पर पाप-सर्प उसे डस लेता है, और उसकी अत्मिक मृत्यु हो जाती है | जिस लक्ष्य के लिए जीव जगत् में आया था, उससे वञ्चित हो जाया करता है | कितने हैं जिन्हें तत्व का ज्ञान है !
स्वामी वेदानन्द तीर्थ सरस्वती
(स्वाध्याय‌-सन्दोह से साभार उद्धृत‌)