Pandit Lekhram |
The New Revolution
A large number of people can be seen in the recent times who are trying their best to denigrate Vedas, ancient scriptures of rishis(sages) and Hinduism. This blog space is the contribution in refuting the false claims with the help of collection of articles and books written by scholars.
Wednesday, March 6, 2019
शूरता की मिसाल – पंडित लेखराम आर्य मुसाफिर (डॉ विवेक आर्य)
Thursday, April 11, 2013
जीव तू सिद्धि के लिए पैदा हुआ है
ओउम् | वृषा ह्यसि राधसे जज्ञिषे वृष्णि ते शवः |
स्वक्षत्रं ते धृषन्मनः सत्राहमिन्द्र पौंस्यम् ||
ऋग्वेद 5|35|4
शब्दार्थ -
हे इन्द्र................हे ऐश्वर्य्याभिलाषिन् जीव ! तू
हि.....................सचमुच
वृषा...................बलवीर्त्तयुक्त, समर्थ
असि..................है, तू
राधसे.................सिद्धि के लिए, ऐश्वर्य्य के लिए
जज्ञिषे................उत्पन्न हुआ है,
ते......................तेरा
शवः...................बल
वृष्णि.................सुखवर्षक है
ते.....................तेरा
स्वक्षत्रम्..............घाव भरने का अपना सामर्थ्य है, अपनी त्रुटियों को पूरा कराने का अपना बल है |
ते.....................तेरा
मनः..................मन
धृषत्..................प्रौढ़ है और
पौंस्यम्...............पुंस्त्व, शौर्य्य
सत्राहम्...............सत्याचरणादि है |
व्याख्या -
संसार में मतमतान्तर जीव को निर्बल, हीनवीर्य्य मानते हैं | वेद जीव का वास्तविक स्वरूप बताता है | निस्सन्देह भगवान् की रचना अत्यन्त अद्भुत है, परन्तु जीव की कृति भी बहुत विलक्षण है | आग जलाना, कूप खोदना, नदियों से नहरें निकालना, कृषि करना, मकान बनाना आज साधारण से कार्य्य प्रतीत होते हैं, किन्तु सोचिये, जब पहले-पहल ये कार्य्य किये गये होंगे, तब ये कितने कष्टसाध्य, मस्तिष्क को थका देने वाले हुए होंगे, रेल, तार, जहाज, वायुयान, बेतार का तार, बिजली के प्रदीप, वनस्पति तेल, घृत, अन्न से भोजन पकाना, गुड़-शक्कर, खाँड, चीनी, फलों के आचार मुरब्बे, सुवर्ण आदि धातु के आभूषण, मोटर, पैट्रोल, मिट्टी का तेल, पीतल, ताम्र आदि के पात्र, लोहा आदि के उपकरण, शस्त्र-अस्त्र तथा अन्य उपयोगी पदार्थ, विविध धातुओं के भस्म, पानी से बर्फ, पत्थर से सीमेंट बनाना आदि कार्य्य कहाँ तक गिनाएँ ! युद्ध के उपयोगी आयुध इनसे पृथक हैँ | मनुष्य ने इतने पदार्थों की सृष्टि कर डाली है कि उसे छोटा मोटा विधाता मानने में कोई दोष नहीं है | प्रतिदिन हमारे व्यवहार में आनेवाले विद्युत्प्रदीप आदि आज सरल प्रतीत होते हैं किन्तु उनके निर्माण में मनुष्यों को कितना परीश्रम करना पड़ा, इसकी कल्पना करना भी आज कठिन है | ये सारे के सारे पदार्थ जीव ने अपने और अपने जैसों के सुख के लिए बानाये हैं, अतः वेद कहता है - हि असि वृषा = सचमुच तू वृषा है, सुख बरसाने वाला है | तेरा स्वभाव तो सुखी होने तथा सुखी करने का है | तू संसार के लिए सुख के साधन जुटा, सबको सुखसम्पन्न बना | यदि मनुष्य केवल अपने सुखसाधन को ही जीवन का लक्ष्य मान लेता है तो भयंकर संघर्ष उत्पन्न हो जाता है | जब वह दूसरे के सुखों का भी विचार करता है तब उसका परिवार बढ़ता है और उससे उसकी समृद्धि की भी वृद्धि होती है | मनुष्य के लिए यह आवश्यक ही है कि वह सिद्धि के साधनों का अवलम्बन करे, क्योंकि वेद में उसे सम्बोधन करके कहा है कि तू - राधसे जज्ञिषे = सिद्धि के लिए उत्पन्न हुआ है | तुझे नरतन मिला ही इसलिए है कि तू संसार की सुख सामग्री उत्पन्न कर और बढ़ा | पूर्वजों के बुद्धि-वैभव तथा हस्तकौशल का लाभ हमने उठाया है | हमारी सफलता इसी में है कि आगे आने वाली सन्तान के लिए पूर्व की अपेक्षा अधिक सम्पत्ति छोड़ जाएँ | मनुष्य और पशु में यह भारी भेद है, पशु में सामाजिक जीवन की झलक अवश्य होती है किन्तु जिस प्रकार मनुष्यों में एक दूसरे के सुख-दुख में सम्मिलित होने तथा सन्तान के लिए सुख-सामग्री छोड़ जाने की स्वाभाविक भावना है, पशुओं में उसका सर्वथा अभाव है |
मनुष्य जन्म सिद्धि के लिए हुआ है, असफलता के लिए नहीं हुआ है | वैदिक तो दृढ़ विश्वास से कहता है - अजैष्माद्य (अ. 16|6|1) = आज ही हमारा विजय है | कल तक की प्रतीक्षा सह्य नहीं है | जाने कल क्या हो जाए ? सिद्धि के लिए, कार्य्यसिद्धि के लिए, बल चाहिए | बलाभिलाषी को वेद कहता है - वृष्णि ते शवः = तेरा बल भी प्रबल है, सुखदायी है | यदि कोई विघ्न आये तो घबराने की आवश्यक्ता नहीं, क्योंकि तेरा बल जहाँ वृष्णि है, वहाँ स्वक्षत्र अपनी त्रुटि पूर्ण करने में समर्थ है | तेरा मन भी धृषत् = प्रौढ़ है, और - सत्राहं पौंस्यम् = वीरता सदाचरण आदि है | इस अन्तिम वाक्य में जीव के सामर्थ्य को मूल बताया गया है | इसे कभी विस्मरण न करना चाहिए | सत्यस्वरूप आत्मा यदि सत्य से विरहित हो जाता है, तो अपने स्वरूप का आप विघात करता है | सत्य से भ्रष्ट होने पर पाप-सर्प उसे डस लेता है, और उसकी अत्मिक मृत्यु हो जाती है | जिस लक्ष्य के लिए जीव जगत् में आया था, उससे वञ्चित हो जाया करता है | कितने हैं जिन्हें तत्व का ज्ञान है !
स्वामी वेदानन्द तीर्थ सरस्वती
(स्वाध्याय-सन्दोह से साभार उद्धृत)
Friday, December 9, 2011
गोरक्षा आदि विषयों पर आचार्य आर्य नरेश का व्याख्यान
(१) वेदों में गोहत्या निषेध |
(२) वेदों की गलत व्याख्याओं का सप्रमाण खंडन |
(३) भारतीय सविंधान में गोरक्षा का उपदेश |
(४) गोपदार्थों के वैज्ञानिक लाभ |
(५) नेताओं का स्वार्थ, आदि |
Wednesday, November 23, 2011
कर्मफल विवरण
कर्मो का फल कब , कैसा , कितना मिलता है , यह जिज्ञासा सभी धार्मिक व्यक्तियों के मन में होती है । कर्मफल देने का कार्य मुख्य रूप से ईश्वर द्वारा संचालित व नियंत्रित है , वही इसके पूरे विधान को जानता है । मनुष्य इस विधान को कम अंशों में व मोटे तौर पर ही जान पाया है , उसका सामर्थ्य ही इतना है । ऋषियों ने अपने ग्रंथो में कर्मफल की कुछ मुख्य – मुख्य महत्वपूर्ण बातों का वर्णन किया है , उन्हे इस लेख में व संबंधित चित्र में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है । कर्मफल सदा कर्म के अनुसार मिलते है । फल की दृष्टि से कर्म दो प्रकार के होते है - १. सकाम कर्म २. निष्काम कर्म सकाम कर्म उन कर्मो को कहते है , जो लौकिक फल ( धन , पुत्र , यश आदि ) को प्राप्त करने की इच्छा से किए जाते है । तथा निष्काम कर्म वे होते है , जो लौकिक फलों को प्राप्त करने के उद्देश्य से न किए जाए बल्कि ईश्वर / मोक्ष प्राप्ति की इच्छा से किए जाएँ । सकाम कर्म तीन प्रकार के होते है - अच्छे , बुरे व मिश्रित । अच्छे कर्म – जैसे सेवा ,दान , परोपकार करना आदि । बुरे कर्म – जैसे झूठ बोलना , चोरी करना आदि । मिश्रित कर्म – जैसे खेती करना आदि , इसमें पाप व पुण्य (कुछ अच्छा व कुछ बुरा ) दोनों मिले – जुले रहते है । निष्काम कर्म सदा अच्छे ही होते है , बुरे कभी नहीं होते । सकाम कर्मो का फल अच्छा या बुरा होता है , जिसे इस जीवित में या मरने के बाद मनुष्य पशु , पक्षी , आदि शरीरों में अगले जीवन में जीवन अवस्था में ही भोगा जाता है । निष्काम कर्मों का फल ईश्वरीय आनन्द की प्राप्ति के रूप में होता है , जिसे जीवित रहते हुए समाधि अवस्था में व मृत्यु के बाद बिना जन्म लिये मोक्ष अवस्था में भोगा जाता है । जो कर्म इसी जन्म में फल देने वाले होते है , उन्हे "द्रष्टजन्मवेदनीय" कहते है और जो कर्म अगले किसी जन्म में फल देने वाले होते हैं , उन्हे "अद्रष्टजन्मवेदनीय" कहते है इन सकाम कर्मो से मिलने वाले फल तीन प्रकार के होते है - १. जाति २. आयु ३. भोग । समस्त कर्मो का समावेश इन तीनों विभागों में हो जाता है । जाति अर्थात मनुष्य , पशु , पक्षी , कीट , पतंग , वृक्ष , वनस्पति आदि विभिन्न योनियाँ , आयु अर्थात जन्म से लेकर मृत्यु तक का बीच का समय , भोग अर्थात विभिन्न प्रकार के भोजन , वस्त्र , मकान , आदि साधनों की प्राप्ति । जाति , आयु व भोग इन तीनों से जो ' सुख – दुख ' की प्राप्ति होती है , कर्मो का वास्तविक फल ही तो वही है । किन्तु सुख – दुख रूपी फल का साधन होने के कारण ' जाति , आयु , भोग ' को फल नाम दे दिया गया है । द्रष्टजन्मवेदनीय कर्म किसी एक फल =आयु व भोग को दे सकते है । जैसे उचित आहार – विहार , व्यायाम , ब्रह्मचर्य , निद्रा , आदि के सेवन से शरीर की रोगों से रक्षा की जाति है तथा बल-वीर्य , पुष्टि , भोग सामर्थ्य व आयु को बढ़ाया जा सकता है , जबकि अनुचित आहार , विहार आदि से बल , आयु आदि घट भी जाते है । द्रष्टजन्मवेदनीय कर्म 'जाति रूप फल ' को देने वाले नहीं होते हैं क्योंकि जाति (= योनि ) तो इस जन्म में मिल चुकी है , उसे जीते जी बदला नहीं जा सकता , जैसे मनुष्य शरीर की जगह पशु शरीर बदल देना । हाँ मरने के बाद तो शरीर बदल सकता है , पर मरने के बाद नई योनि को देने वाला कर्म "अद्रष्टजन्मवेदनीय" कहा जाएगा न की द्रष्टजन्मवेदनीय । अद्रष्टजन्मवेदनीय कर्म दो प्रकार के होते है - १. ' नियत विपाक ' २. 'अनियत विपाक ' । कर्मो का ऐसा समूह जिनका फल निश्चित हो चुका हो और जो अगले जन्म में फल देने वाला हो उसे ' नियत विपाक ' कहते है । कर्मो का ऐसा समूह जिसका फल किस रूप में व कब मिलेगा , यह निश्चित न हुआ हो उसे ' अनियत विपाक ' कहते है । कर्म फल को शास्त्र में ' कर्माशय ' नाम से कहा गया है । ' नियत विपाक कर्माशय ' के सभी कर्म परस्पर मिलकर ( संमिश्रित रूप में ) अगले जन्म में जाति , आयु , भोग प्रदान करते है । इन तीनों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार से जानने योग्य है – १. जाति - इस जन्म में किए गए कर्मों का सबसे बड़ा महत्वपूर्ण फल अगले जन्म में जाति – शरीर रूप में मिलता है । मनुष्य , पशु , पक्षी , कीट , पतंग स्थावर – वृक्ष के शरीरों को जाति के अंतर्गत ग्रहण किया जाता है । यह जाति भी अच्छे व निम्न स्तर की होती है यथा मनुष्यों में पूर्णांग , सुंदर , कुरूप, बुद्धिमान , मूर्ख आदि , पशुओं में गाय , घोडा , गधा सूअर आदि । २. आयु – नियत विपाक कर्माशय का दूसरा फल आयु अर्थात जीवनकाल के रूप में मिलता है , जैसी जाति (शरीर = योनि ) होती है , उसी के अनुसार आयु भी होती है । यथा मनुष्य की आयु सामान्यतया १०० वर्ष ; गाय , घोडा आदि पशुओं की २५ वर्ष ; तोता , चिड़िया आदि पक्षियों की २- ४ वर्ष ; मक्खी , मच्छर , भौरा , तितली आदि कीट पतंगो की २–४-६ मास की होती है । मनुष्य अपनी आयु को स्वतंत्रता से एक सीमा तक घटा – बढ़ा भी सकता है । ३. भोग – 'नियत विपाक कर्माशय ' का तीसरा फल भोग (=सुख –दुख को प्राप्त कराने वाले साधन ) के रूप में मिलता है । जैसी जाति (शरीर=योनि ) होती है उसी जाति की अनुसार भोग होते है । जैसे मनुष्य अपने शरीर , बुद्धि , मन , इन्द्रिय आदि साधनों से मकान , कार , रेल , हवाई जहाज , मिठाई , पंखा , कूलर आदि साधनों को बनाकर , उनके प्रयोग से विशेष सुख को भोगता है । किन्तु गाय , भैस , घोडा , कुत्ता , आदि पशु केवल घास , चारा , रोटी आदि ही खा सकते है , कार – कोठी नहीं बना सकते है । शेर , चीता , भेड़िया आदि हिंसक प्राणी केवल माँस ही खा सकते है , वे मिठाई , गाड़ी , मकान , वस्त्र आदि की सुविधाएँ उत्पन्न नहीं कर सकते है । जैसा की पूर्व कहा गया की ' नियत विपाक कर्माशय ' से मिली आयु व भोग पर 'द्रष्टजन्मवेदनीय कर्माशय' का प्रभाव पड़ता है , जिससे आयु व भोग घट-बढ़ सकते हैं , पर ये एक सीमा तक (उस जाति के अनुरूप सीमा में ) ही बढ़ सकते है । 'अद्रष्टजन्मवेदनीय कर्माशय' के अंतर्गत ' अनियतविपाक' कर्मो का फल जाति , आयु भोग के रूप में ही मिलता है , परंतु यह फल कब व किस विधि से मिलता है , इसके लिए शास्त्र में तीन स्थितियां ( गतियां ) बताई गई है । १. कर्मो का नष्ट हो जाना , २. साथ मिलकर फल देना ३. दबे रहेना । १. प्रथम गति - कर्मों का नष्ट हो जाना – वास्तव में बिना फल को दिए कर्म कभी भी नष्ट नहीं होते , किन्तु यहाँ प्रकरण में नष्ट होने का तात्पर्य बहुत लंबे काल तक लुप्त हो जाना है । किसी भी जीव के कर्म सर्वांश में कदापि समाप्त नहीं होते , जीव के समान वे भी अनादि – अनंत है । कुछ न कुछ मात्र संख्या में तो रहेते ही है । चाहे जीब मुक्ति में भी क्यों न चला जावे । अविद्या ( राग – द्वेष ) के संस्कारों को नष्ट करके जीव मुक्ति को प्राप्त कर लेता है , जितने कर्मो का फल उसने अब अक भोग लिया है , उनसे अतिरिक्त जो भी कर्म बच जाते है , वे मुक्ति के काल तक ईश्वर से ज्ञान में बने रहेते है । इनहि बचे कर्मो के आधार पर मुक्ति काल पश्चात जीव को पुनः मनुष्य शरीर मिलता है । तब तक ये कर्म फल नहीं देते , यही नष्ट होने का अभिप्राय है । २. दूसरी गति – साथ मिलकर फल देना – अनेक स्थितियाँ में ईश्वर अच्छे व बुरे कर्मों का फल साथ – साथ भी देता है । अर्थात अच्छे कर्मो का फल अच्छी जाति , आयु और भोग मिलता है , किन्तु साथ में कुछ अशुभ कर्मों का फल दुख भी भुगा देता है । इसी प्रकार अशुभ का प्रधान रूप से निम्न स्तर की जाति , आयु , भोग रूप फल देता है , किन्तु साथ में कुछ शुभ कर्मों का फल सुख भी मिल जाता है । उदाहरण के लिए शुभ कर्मों का फल मनुष्य जन्म तो मिला , किन्तु अन्य अशुभ कर्मों के कारण उस शरीर को अंधा , लूला , या कोढ़ी बना दिया । दूसरे पक्ष में प्रधानता से अशुभ कर्मों का फल गाय , कुत्ता , आदि पशु योनि रूप में मिला , किन्तु कुछ शुभ कर्मों के कारण अच्छे देश में अच्छे घर में मिला , परिणाम स्वरूप सेवा , भोजन आदि अच्छे स्तर के मिले । ३. तीसरी गति – कर्मों का दबे रहेना – मनुष्य अनेक प्रकार के कर्म करता है , उन सारे कर्मो का फल किसी एक ही योनि – शरीर में मिल जाए , यह संभव नहीं है । अतः जिन कर्मों की प्रधानता होती है , उनके अनुसार अगला जन्म मिलता है । जिन कर्मों की अप्रधानता रहती है , वे कर्म पूर्व संचित कर्मों मे जाकर जुड़ जाते है और तब तक फल नहीं देते , जब तक की उनही के सदृश , किसी मनुष्य शरीर में मुख्य कर्म न कर लिए जाए । इस तीसरी स्थिति को कर्मों का दबे रहेना नाम से कहा जाता है । उदाहरण – किसी मनुष्य ने अपने जीवन में मनुष्य जाति , आयु , भोग दिलाने वाले कर्मों के साथ साथ कुछ कर्म सूअर की जाति , आयु , भोग दिलाने वाले भी कर दिए , प्रधानता – अधिकता के कारण अगले जन्म में मनुष्य शरीर मिलेगा और सूअर की योनि देने वाले कर्म तब अक दबे रहेंगे , जब तक की सूअर की योनि देने वाले कर्मों की प्रधानता न हो जाए । उपयुक्त विवरण का सार यह निकलता की इस जन्म में दुखों से बचने तथा सुख को प्राप्त करने के लिए तथा मोक्ष की प्राप्ति के लिए हमें सदा शुभ कर्मों को ही करते रहना चाहिए और उनको भी निष्काम भावना से करना चाहिए । आभार :- आचार्य ज्ञानेश्वरार्य , दार्शनिक निबंध. |
Wednesday, May 11, 2011
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Manu Ka Virodh Kyon Why Oppose Manu Hindi
Tuesday, May 3, 2011
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